साहित्य और समाज
साहित्य और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं, दोनों में गहरा संबंध है। किसी भी साहित्य का निर्माण साहित्यकार द्वारा समाज में रह कर ही किया जा सकता है। अतः वह समाज की उपेक्षा नहीं कर सकते। जिस साहित्य में समाज की उपेक्षा की जाती है, वह साहित्य समाज में आदर नहीं पाता। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व अविचारणीय है। साहित्य का क्षेत्र अत्यंत विशाल है। यह मनुष्य के विचारों का परिमार्जन करने के साथ-साथ उदान्तीकरण भी प्रस्तुत करता है। प्रगतिशीलता का दूसरा नाम जीवन है। यह प्रगति उच्च आदर्शों, महती कल्पनाओं, और दृढ़ भावनाओं के द्वारा ही संभव हो सकती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें साहित्य द्वारा उच्चादर्शों और दृढ़ भावनाओं की उपलब्धि संभव हुई है। समाज की उथल-पुथल का साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। कबीर ने समाज में फैली सामाजिक कुरीतियों, खोखली मान्यताओं एवं बाह्य आडम्बरों के विरोध में अपनी आवाज उठाई है। इसी प्रकार मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानियों एवं उपन्यास में किसी-न-किसी समस्या के प्रति संवेदना जताई है। इस प्रकार साहित्य समाज के दुष्परिणामों को बड़े ही मर्मस्पर्शी रूप में हमारे समक्ष लाता है।
विभिन्न देशों में जितनी भी क्रांतियाँ हुईं, वे सब सफल साहित्यकारों की ही देन हैं। प्लेटो और अरस्तु के नवीन सिद्धातों ने राज्य और अधिकारों के स्वरूप को ही बदल दिया। जयपुर के राजा जयसिंह जिन्हें मंत्रियों, सभासदों की संगति न बदल सकी उसे महाकवि बिहारी के एक दोहे ने बदल दिया। समाज साहित्य को और साहित्य समाज को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकता। जिस समाज की जैसी परिस्थितियाँ होंगी वैसा ही उसका साहित्य होगा। इसलिए साहित्य समाज की प्रतिध्वनि, प्रतिच्छाया और प्रतिबिम्ब है। अतः साहित्यकार को समाज का सजग प्रहरी कहना अनुचित न होगा। अतः साहित्य समाज का दर्पण होता है। साहित्य मानव-जीवन का व्यापक प्रतिबिम्ब है और उसका मार्गदर्शक भी।
"अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है।"