सांप्रदायिकता का जहर
राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता
किसी विशेष धर्म या संस्कृति को दूसरे पर जबरन आरोपित करने का प्रयत्न करना या करने की भावना रखना, धर्म अथवा संस्कृति के आधार पर पक्षपात पूर्ण व्यवहार करने की क्रिया सांप्रदायिकता कहलाती है। साम्प्रदायिकता हमारी सामाजिक और राष्ट्रीय एकता को क्षति पहुँचाती है, समाज में वैमनस्य फैलाती हैं। वह देश जहाँ हम पैदा हुए, पले-बड़े, शिक्षा प्राप्त की, उसी राष्ट्र के लिए जीना, मरना, काम करना उसकी स्वतंत्रता की रक्षा और विकास के लिए काम करने की भावना ही राष्ट्रीयता कहलाती है। सांप्रदायिकता राष्ट्रीयता के लिए बाधक है, क्योंकि राष्ट्रीयता के लिए, देश के लिए "स्व" का त्याग करना पड़ता है। देश मेंरहने वाले लोगों का धर्म, जाति, भाषा या सम्प्रदाय कुछ भी हो किन्तु आपसी स्नेह होना स्वाभाविक है। व्यक्ति को अपने निजी स्वार्थ को छोड़कर अपने स्वयं का अस्तित्व कायम रखने के लिए सभी पारंपरिक सीमाओं की बाधाओं को भुला कर कार्य करना चाहिए तभी उसकी नीतियाँ-रीतियाँ राष्ट्रीय कहलाती हैं। जबकि साम्प्रदायिकता के फलस्वरूप एक सम्प्रदाय या धर्म दूसरे सम्प्रदाय या धर्म की न केवल निंदा करता है, अपितु स्वयं के धर्म को बेहतर सिद्ध करने के लिए एक-दूसरे के विरूद्ध दलबंदी करते हैं। कोई भी धर्म जब मदांधता का रूप धारण कर लेता है उसमें दूसरे धर्मों या जीवन दर्शनों की मान्यताओं के प्रति असहिष्णुता तीव्र होती जाती है, तब वह सांप्रदायिकता कहलाती है। इसका प्रभाव इतना अधिक होता है, कि हम मानव-धर्म को भूल जाते हैं । बदला लेने की भावना, अपने सम्प्रदाय विशेष का दल बना कर मारकाट करना किसी भी धर्म का आदेश या सीख नहीं हो सकती। साम्प्रदायिकता से पीड़ित व्यक्ति कभी-भी राष्ट्रीयता का समर्थक नहीं हो सकता और न ही अपने राष्ट्र से प्रेम करने वाला व्यक्ति साम्प्रदायिक हो सकता है। अकबर इलाहाबादी ने कहा है-
"मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना।
हिंदी हैं, हम, वतन हैं हिंदोस्ता हमारा।"
आधुनिक युग में भी प्रचार तंत्र के कारण व्यक्ति साम्प्रदायिक हो उठता है जो लोग बुद्धिजीवी होते हैं , विवेकशील होते हैं, उन पर साम्प्रदायिकता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।