मेरा पुस्तकालय mera pustkalaya



  मेरा पुस्तकालय

शारीरिक रूप से स्वस्थ एवं सुदृढ़ होने के लिए हमें पौष्टिक भोजन और नियमित व्यायाम की आवश्यकता होती है। ठीक वैसे ही मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। यह ज्ञान जितना नवीनतम होता है, उतना ही हम समय के अनुसार चलकर आगे बढ़ने में सफल होते हैं । ज्ञान प्राप्त करने के लिएहम विद्यालय जाते हैं। तथा अतिरिक्त ज्ञानार्जन हेतु हमें पुस्तकालय की शरण लेनी पड़ती है। पुस्तकालय दो शब्दों से मिलकर बना होता है- पुस्तक + आलय, अर्थात् वह स्थान जहाँ पुस्तकें रहती हैं या पुस्तकों का घर । पुस्तकालय में व्यक्ति अपने पसंद की पुस्तकों का चयन करता है और अपनी ज्ञान की क्षुधा को तृप्त करता है। पुस्तकालय के दो भाग होते हैं- वाचनालय और पुस्तकालय । वाचनालय में समाचार पत्र-पत्रिकाएँ इत्यादि के पठन की व्यवस्था होती है। जबकि पुस्तकालय में विविध विषयों पर आधारित पुस्तकें उपलब्ध रहती हैं।पुस्तकालय में ऐसी पुस्तकें भी सरलता से मिल जाती हैं जिन्हें ढूढ़ने के लिए अत्यधिक श्रम करना पड़ता है।पुस्तकों से न केवल मनोरंजन होता है, बल्कि वे हमारे ज्ञान की वृद्धि में भी सहायक होती हैं।

                       प्राचीन काल से ही भारत अपने पुस्तकालयों के लिए प्रसिद्ध रहा है। नालंदा एवं तक्षशिला के पुस्तकालयों को भला कौन नहीं जानता। मनुष्य आरंभ से ही जिज्ञासु प्रवृत्ति का रहा है। उसके ज्ञान-प्राप्ति की चाह कभी समाप्त नहीं होती। इसलिए पुस्तकालय के कई प्रकार होते हैं। जैसे-विद्यालय या विश्वविद्यालय के पुस्तकालय, निजी पुस्तकालय, राजकीय पुस्तकालय (इनका संचालन सरकार द्वारा होता है) तथा सार्वजनिक पुस्तकालय। इनके अतिरिक्त भी कई पुस्तकालय स्वयंसेवी संगठनों द्वारा भी चलाये जाते हैं। ज्ञान में ईश्वर की शक्ति होती है। इस शक्ति को प्राप्त करने के लिए पुस्तकालय से बढ़कर अन्य कोई स्थान नहीं है। पुस्तकों द्वारा हमारी जिज्ञासा शांत होती है। ज्ञान के इन अक्षय भंडारों के प्रति प्रेम तथा उसमें समाहित ज्ञान का उपयोग और इनसे ज्ञानार्जन राष्ट्र का विकास करेगा

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